एक नारी की ज़िन्दगी का सफर और उसके हमसफ़र...

इस पथरीले सफर में ज़िन्दगी की राहों में न जाने कितने ही मोड़ आते है। नारी कितनी बार वक्त और हालात के हाथो मजबूर होकर अपनों के ही सामने घुटने टेक कर ज़िन्दगी को एक बोझ समझकर ढोती रहे। अब तक के इतिहास में न जाने कितनी नारियों ने कितने समझौतों की आग में अपने आप को न जाने कितनी बार झोक दिया है। ऐसे में नारी के ज़हन में कुछ ऐसी बातें आती है जो वो किसी से नही कहती लेकिन अपने आप से हमेशा पुछा करती है जब वो दुनिया की चकाचौंध में भी ख़ुद को अकेला समझने लगती है। कुछ लोग माँ - बाप के बिना ख़ुद को अकेला मानते है लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते है जो माँ और बाप दोनों के होते हुए भी अपने आप को अनाथ से कमतर नही समझते। ये कहानी ऐसी ही एक लड़की की है जिसने कई बार ऐसे समझौते भी किए है जिन्हें करने के लिए उसका ज़मीर इज़ाज़त नही देता। और इन्ही में से ही एक है। यह लड़की कहती है.................
आख़िर कितनी बार जीवन में सामने आए कठिन मोड़ो से मुह मोड़ कर मैं अपनी राह बदलू ? कभी कोई समझने की कोशिश क्यों नही करता। और सबसे ज्यादा तकलीफ तब होती है जब मुझे मेरे माँ बाप ही नही समझते। हमारे माँ बाप भी तो इसी उम्र से गुजरे है जिस उम्र के पड़ाव पर आज मैं खड़ी हूँ। फ़िर क्यूँ वो भी मुझे समझने की कोशिश नही करते। मन में उमड़ते घुमड़ते और विचलित कर देने वाले सवाल और उन गैर जिम्मेदारियों के हम पर पड़ने वाले असर के बारे में अब हम कहें भी तो किससे? माना के जीवन के सफर का एक मतलब पाना और खोना भी है। लेकिन ज़िन्दगी को देखने का एक नजरिया उसे एक आधा भरा गिलास भी तो है, जिसे हम अपने अपने नज़रिए से आधा भरा या आधा खाली मानते है। लेकिन मैं कुछ पाने की खातिर अपना सब कुछ खोने से भी पीछे नही हटी, फ़िर क्यूँ मेरे हाथ आई सिर्फ़ तनहाई और रुसवाई जो अपने साथ कई आंसू और तकलीफे लाई। क्या मुझे इस सफर में बस खोना ही होगा, अब जब सब कुछ खोकर कुछ पाने की आस लगी है तो क्या ग़लत किया है मैंने......? ईश्वर भले ही मेरी परीक्षा ले रहा है, क्यूंकि सोना तपती आग में जलकर ही कुंदन बनता है। लेकिन इसका मतलब ये तो नही की मुझे इस दुनिया में लाने वालों को भी मुझ पर तरस ना आए। आख़िर मैं कब तक दुसरो की खुशियों में अपनी खुशियों को तलाशते हुए अपनी आशाओं और उम्मीदों के साथ साथ अपनी चाहतो का भी गला घोटी रहूंगी ? वो क्यूँ नही समझते की मैं क्या चाहती हूँ? बच्चे तो खैर जानवर भी पैदा कर लेते है। तो इन्होंने कौन सा तीर मार लिया जिसका एहसान ये हम पर जताते रहते है। शरीर ढाक देने से और पेट भर देने से कोई माँ बाप नही बन जाता। कदम कदम पर बाप बन कर साथ चलना पढता है। माँ बन कर अपनी ममता की छाव में अपनी औलाद का लालन पालन करना पड़ता है। लेकिन ये बाते वो क्या समझेंगे जिन्होंने कभी औलाद को औलाद ही नही समझा....बस समझा तो बस समाज और बिरादरी में अपनी नाक को बचने और साथ ही ऊपर उठाने का मोहरा। बेटे माँ के करीब होते है तो बेटिया बाप के, फ़िर क्यूँ मुझे हमेशा डर और खौफ के साये में जी कर पिता के उस स्नेह से वंचित रहना पड़ा जिस पर मेरा बचपन से हक़ था। आगे आने वाली ज़िन्दगी में भी क्या मुझे अपनी खुशियों का गला ये कह कर घोटना होगा की माँ और बाप का कहा मानने में ही बच्चो की भलाई है। भले माँ बाप बच्चो को बच्चा न समझे। बच्चा अगर गलती करे तो उसे समझाना चाहिए न की उससे मुह मोड़ कर उससे जीने हा हक़ छीन लेना चाहिए। इसे माँ बाप की परवरिश तो क्या इंसानियत का नाम भी नही दिया जा सकता। अगर यही ज़िन्दगी का सफर है तो ऐसे सफर को तय करने का कोई फायदा नही है............

रस्ते भर रो रो कर हमसे पूछा पाँव के छालो ने,
बस्ती कितनी दूर बसा ली, दिल में बसने वालो ने....

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