डीसीसी २०१० बोलू या.....मनमोहक और रोमाचित यात्रा कहूँ???

डिफेन्स कोर्स से आये लगभग महीना होना को आया है | मगर आज भी डीसीसी की यादे यूँ ताज़ा है मानो  कल ही की तो बात है | घर आकर बड़ा ही अजीब सा लग रहा है | वहां हर बात का एक निर्धारित समय होना और यहाँ जो मन में आये वो करो | सच कहूँ तो इस बार दिल्ली में भी मन नहीं लगा | मन में उमरते - घुमरते विचारो से जब अपने आपको टटोला तब कुछ धुंधली बाते साफ़ हुई | डी सी सी में जाने के पहले मुझे सैन्य बल के बारे में इतना कुछ नही पता था, मगर वहां जाकर सैनिको के साथ वक़्त बिताना, उनके जीवन से रूबरू होना बड़ा ही रोमांचित रहा |
हमारे पूरे एक महीने के कोर्स को तीन भागो में बांटा गया था | पहले भाग में हम विशाखापत्तनम में थे | जहाँ हमने जल सेना से जूडी हुई बारीकियो को जाना | कई जलपोत देखे, फिर पनडुब्बियो में बैठ कर समुन्द्र की अंतर आत्मा से मिलने के बाद, जल सेना के दूसरे सबसे बड़े जहाज़ रणवीर की सवारी की |  
उसके बात हम सिल्चर वारांगटे गए, जहाँ हमारा थल सेना का भाग शुरू हुआ | जिसमें हमे मार्कोस की प्रशिक्षण प्रक्रिया  को दिखाया गया | उसके बाद हमारा कारवां रवाना हुआ गुवाहाटी की तरफ, जहाँ हमें भी एके - ४७ और इंसास जैसे बंदूकों को चलने का मौका मिला | उसके बाद हम बड़े चले तेजपुर की ओर, जहाँ सेनी बल की एक और कड़ी शुरू हुई, जो की थी.... वायु सेना | तेजपुर में हमे  पूरा एक दिन आसमान की गोद में बैठने को दिया गया |  आज भी जब वो दिन याद आता है जब हम ए एन - ३६ में बैठकर पूरा आन्ध्र प्रदेश देखा और फिर भारत की सबसे बड़ी नदी ब्रह्मपुत्र का आदि बिंदु देखा, कई  ऐसे गाँव में भी गया जहाँ के लोगो की जीने का सहारा एक मात्र वायु सेना ही है | 
सिक्किम के दृश्य  तो आज भी आँखों में तरोताजा हैं | कश्मीर को धरती का स्वर्ग कहा जाता है, लेकिन पूरा सिक्किम देखने के बाद अब यह बात झूट है कहने को दिल करता है | इंडिया चाइना बार्डर पर तो मनो हमने कोई फ़तेह हासिल करली है ऐसे विचार मन में आ रहे थे |   
और फिर अंततः हमारी इस रोमांचित यात्रा के अंतिम पड़ाव की बारी आ ही गई जो की सिलीगुड़ी था, जहाँ हमे सम्मानित किया गया, और फिर भीगी पलकों और कभी न भूलने वाली यादो के साथ सभी ने एक दुसरे को विदाई दी |       


वाह! वाह! राखी.... हाय..हाय.. राहुल..

मैंने तो पहले ही कहा था....जोड़ियाँ  आसमान में बनती है | फिर स्वयंवर के नाम  पर दूसरे लोगों और अपने आप से मज़ाक किये जाने का क्या मतलब...??  राखी....क्या कहूँ इनके बारे में, पहले तो शादी के नाम पर क्या सीधी - साधी लड़की बनने का ड्रामा,जो इन्होंने किया वो काबिले तारीफ़ था | हिन्दुस्तानी लड़की की ही तरह शर्म और हया की मर्याद में रहने और होने के नाम की माला जो राखी पूरे शो के दौरान जप रही थी...उसी माला को (शो में वर के रूप में चुने गए इलेश परुजनवाला के साथ एक और शो जिसका नाम पति पत्नी और वो था) खुद इन्होंने ही तार तार करके रख दिया | उसके बाद कितनी सफाई से सोच -विचार, संस्कार और लाइफ स्टाइल बिलकुल अलग होने का कारण देकर इलेश को अपनी ज़िन्दगी से दूध में से मक्खी की तरह निकल कर फेंक दिया | तो राखी जी इसे हम आपका इलेश परुजनवाला के साथ किया गया धोखा समझे या "पब्लिसिटी स्टंट" | खैर..
अब तक हम इस किस्से को भूले भी नहीं थे की हमे गुफ्तगू करने के लिए एक और मौका मिल गया....
जहाँ  रसिया राहुल महाजन बिग बॉस के बाद एक बार फिर अपने साथ पंद्रह सुंदरियों के साथ  के रास लीला के अखाड़े में उतरे और जनता के सामने अपनी इस हरकत को  नाम दिया  " स्वयंवर".... का | इस  शो में राहुल का दिल जितने की जद्दो जहद में सभी सुन्दरियों ने अपनी जान लगा दी...लेकिन राहुल का दिल डिम्पी ले गयीं | आखिरकार ६ मार्च हो धूम धाम से हुई शादी आज टूटने की कगार पर है | तो राहुल अब आगे क्या करने का इरादा है....?
 
अब देखना यह है, कि....इन दोनों कि हरकत और हालत से किसी को सबक मिलता है....या सब के सब.... कुएं के मेंढक बने एक ताल पर ही नाचेंगे|

कल आज और कल

आज करीब डेढ़ साल बाद दिल्ली में वापस कदम रखा | यूँ लगा मानो ज़िन्दगी बैलगाड़ी की रफ़्तार छोड़ कर मेट्रो पर उतर गई है, मन फिर चंचल हो गया और तैयार हो गया हवा से बाते करने को | कितना कुछ बदल गया है यहाँ... लेकिन मन में एक सुकून सा है | भले ये सुकून केवल सात दिनों का है | उसके बाद फिर रायपुर वापस लौटकर बैलगाड़ी की चाल चलना है | रायपुर जाने के बाद कभी सोचा नहीं था, कि दिल्ली फिर आना नसीब होगा | सच कहूँ... तो अब रायपुर में रहने का दिल नहीं करता, कारण  एक नहीं के हैं | दिल्ली आने से पहले भी मैं खुद से इसी विषय पर तर्क वितर्क कर रही थी कि, रायपुर छोड़ने का मन  तो बना लिया है, पर आगे कहाँ जाना है ? और क्या करना है ? दिल्ली की गलियों में फिर से धक्के खाने है या मुंबई जाकर एक और मेट्रो में किस्मत को आज़माना है | मगर अब तक नतीजे पर नहीं पहुँच पाई हूँ..... | नतीजे पर कभी दिल नहीं पहुँचने देता है तो कभी दिमाग | किसी भी बारे में कुछ भी सोचने या करने से पहले कई तरह से अपने आपको टटोलना पड़ता है | ये बड़ा ही कठिन दौर होता है , लेकिन सभी मनुष्यों के जीवन में  ऐसे दोराहे  कई बार आते हैं | लड़की हूँ इसीलिये घरवालो के नज़रिए को भी देखना और समझना पड़ता है |  पर अब व्यक्तिगत रूप से कुछ कर दिखाने का समय आ गया है |  कुएं की मेंढकी  बन कर अब मैं नहीं जीना चाहती | जीवन में कुछ कर गुजरने का ज़ज्बा जो मेरे अन्दर है उसे अब मैं सबके सामने लाना चाहती हूँ | मुझे लगता है,  कि अब  वो समय आ गया है | अब तक ज़िन्दगी में कई समझौते कर चुकी हूँ | अब अपना फैसला खुद लेने का वक़्त है, जिसमें मैं किसी की नहीं सुनूंगी....पर दिल और दिमाग में  द्वंद्व युद्ध जारी है |  मुझे भी इंतज़ार है उस नतीजे का | जिसमें ईश्वर की  भी स्वीकृति हो |

जीना क्या जीवन से हार के......

वक़्त के थेपेड़े  क्या कुछ देखने और सहने पर मजबूर नहीं कर देते l कभी - कभी तो सोचने पर विवश होना पड़ता है कि ऐसा भी कुछ हो सकता है भला........? जैसे - जैसे समय का पहिया चलता है, इंसान जीवन को संघर्ष करता हुआ उसी समय में जीता है l  एक  इसी आस में... कि रात के बाद सवेरा  जरूर होता है l  मगर कोई कब तक बर्दाश  करे...?  एक दिन तो सब्र का बाँध टूट ही जाता है l तब ज़िन्दगी  एक बोझ से कुछ कम नहीं लगती, और ऐसे में हम भगवान् को कोसते है l बावजूद यह याद रखने के, कि भगवान् तो हमेशा हमारे साथ है l बस दिखाई नहीं देते l वो भी तो जानना चाहते है, कि मुसीबत की घड़ी में हम उनपर कितनी श्रद्धा बनाये रखते है ?? वक़्त अपनी गति से चल रहा है, और उसके साथ ही साथ हम अपनी l  ऐसे में सबसे ज्यादा तकलीफ तब होती है, जब बेगानों की भीड़ में हमारे अपने भी हमारा साथ छोड़ते देखाई देते है l और गैर आपका साथ निभाते है l ऐसे में मन में एक सवाल टीस मरता है, कि क्या हमारेअपने  केवल सुख के साथी है, दुःख में कोई किसी का नहीं होता........?

पर वो इंसान ही क्या जो जीवन से हार जाये..... संघर्षों का नाम ही तो ज़िन्दगी है l जब काले घने  अंधेरो के बीच कोई राह नज़र ना आये, तब सब कुछ परमात्मा पर छोड़ देना चाहिए l बावजूद इसके की जीवन को खत्म करने पर उतारू हो जाना चाहिए l जीवन तो चलते रहने का नाम है l चाहे हवाओं का रुख़ हमारी ओर हो या न हो l

ख़ैर............इन्सान की ख्वाइशों  की कोई इन्तहां नहीं होती l
                  दो गज़ ज़मीन चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद l

वाह! वाह! रायपुर हाय.. हाय.. मीडिया

वाह रे, रायपुर शहर तेरे क्या कहने...? जवाब नहीं तेरा। जिसको काम की ज़रूरत है उसे काम नहीं मिलता और जिसे नहीं है उसे आराम नहीं मिलता। मिनी बॉम्बे कहे जाने वाले रायपुर में मीडिया का आज इतना भददा मजाक उड़ा है कि किसी से ना तो हँसते बन रहा है और ना ही अपनी हंसी को रोकते बन रहा है। यहाँ भी अन्य बड़े शहरों की ही तरह काबिलियत और शिक्षा के ज़रिये नहीं, बल्कि नाम और पहुँच के बलबूते ही काम मिलता है। काम चाहे छोटा हो या बड़ा उसे पाने के लिये आपकी पहुँच उस काम से बड़ी होनी चाहिए। वरना... यहाँ तो एक अनार के लाखों बीमार मिलते हैं। मेहनत और संघर्ष देखा है किसी ने....? नहीं इसके अलावा आप जो चाहे करवा लो।
मीडिया शुरुआत से ही लोकतंत्र का चौथा और सबसे ज्यादा प्रभावशाली और महत्वपूर्ण स्तम्भ माना गया है। जिसने हमेशा लोगों को जागरूक करने के साथ साथ सच्चाई और वास्तविकता से भी रूबरू कराया है। तभी तो मीडिया कर्मियों से सब डरते है और उनकी इज्ज़त भी करते है। लेकिन आज जो कुछ देखने सुनने को मिला उस बात ने रायपुर की पत्रकारिता को मज़ाक तो बना ही दिया साथ ही यहाँ के उद्गामी पत्रकारों शर्मसार भी किया है। शुरुआत में ५६ देशों में दिखने का दावा करते आये हिंदुस्तान चैनल को रायपुर में किसी ने नहीं देखा था। उसके बाद रायपुर में दिखने के बाद यह बाकी की ५६ देशो से गायब हो गया। इसके ऑफिस में श्रम विभाग द्वारा मारे गये छापे से पता चला की पत्रकार को यहाँ पत्रकार नहीं बल्कि बंधुआ मजदूर की तरह इस्तेमाल किया जाता था। जिसमें एक दिन की कमाई पुरे दिन के काम के अनुसार होती थी। काम नहीं तो पगार नहीं.... यह यहाँ का उसूल हुआ करता था। आज की स्थिति यह है की काम नहीं और अब चैनल भी नहीं। छोटी छोटी उम्र में बड़े बड़े ओहदों पर बैठे लोगों का तजुर्बा मुश्किल से से महीने का ही है। और वैसे भी रायपुर के पूरे मीडिया क्षेत्र का यही हाल है। अगर सभी गड़े मुर्दे उखाड़े जाये तो ना किसी के पास पत्रकारिता की डिग्री है और ना इसके प्रभाव की छाप।शादी ब्याह में केमरा चलाने वाले लोग यहाँ केमरामेन है तो १२ पास करके नोटों की गड्डीयां कमाने की चाह रखने वाले यहाँ पत्रकार हैं। कहने को खुद को सबसे अच्छा और तेजस्वी पत्रकार बताते है। जिनके तेज से पूरा प्रेस क्लब और रायपुर दोनों वाकिफ है. सड़क के किनारे कपड़े इस्त्री करने वाले धोबी भी अपनी गाड़ियों पर प्रेस लिखवा कर चलते है। पूछने पर कहते है कपड़े प्रेस करते है तभी तो प्रेस वाले है।
रायपुर की मीडिया के हालात देखकर तो यही शेर याद आता है- अजब तेरी किस्मत, अजब तेरा खेल, छछूंदर के सर में चमेली का तेल

मेट्रोज़ बनाम छोटे शहर....

एक कठिन सफर का नाम जीवन है। इस सफ़र में कई आड़े टेढ़े रास्ते आते हैं। कई बार उलझन भी होती है कि अब कौन सा रास्ता चुनें ? कभी आसानी से कट जाने वाले ढलान भरे रास्ते मिलते हैं तो कभी ऊंची चढ़ाई भी हमें तय करनी पड़ती है, हम मुसाफिर की तरह चुपचाप चल रहे होते हैं, साथी कोई मिला तो ठीक न मिला तो ठीक। अब मंजिल किस- किस को मिलेगी यह कह पाना बहुत मुश्किल है। भारत की राजधानी दिल्ली की कभी न थकने वाली दुनिया में अपनी उम्र का एक लम्बा अरसा बिताने के बाद मैं रायपुर आ गयी। यहाँ आने के बाद हर चीज़ के प्रति मेरा नजरिया बदलता गया , मानो अस्तित्व कहीं अपने आप में सिमट कर रह गया । रायपुर मुझे शुरू से ही एक छोटे कस्बे से ज्यादा कुछ नहीं लगा। मेट्रोज़ में किसी को किसी से कोई मतलब नहीं होता, सबको बस अपने काम और अपने आप से मतलब होता है। लेकिन रायपुर में आपके अपने सिवा सबको केवल आप ही से मतलब है। आपने क्या खाया, क्या पहना हुआ है, क्यों पहना है, कहा जा रहे हो, क्यूँ जा रहे हो.... वगैरह वगैरह। लाइफ का स्पेस कही खो गया है। तेज़ रफ़्तार भरी लाइफ स्टाइल के बाद यहाँ ज़िन्दगी वापस बैलगाड़ी की तरह हो गई है। चली तो चली वरना बैठो राम -भरोसे। लेकिन जहाँ इतनी खामियां है वहां कुछ अच्छाईयाँ भी तो है। लोगों से मिलने वाला अपनापन, प्यार, घरो के संस्कार, काफी कुछ जानने को मिला। कुछ पाने की चाहत में किसी के लिये कुछ करना, व्यवहार होता है, लेकिन बिना किसी चाहत के, किसी के लिये कुछ करना अपनापन और इंसानियत होता है। बस एक यही केद्र बिंदु मेरे सफर का मूल आधार है। यही मैंने अब तक की ज़िन्दगी में जाना और माना , लेकिन रायपुर में मैंने सीखा कि लोगों का इस्तेमाल कैसे किया जाता है और अपना मतलब निकल जाने के बाद दूसरे को दूध में से मक्खी की तरह कैसे निकाल कर फेंका जाता है। वैसे ये दुनिया की रीत है, पर मैंने एकदम करीब से देखा ये सब- ज़बान होते हुए भी गूंगी बनी रही, इतना सब कुछ देख लेने के बाद अब लगता है कि अपने पिता कि जन्मभूमि पर आने का मेरा फैसला कहीं गलत तो नहीं था। पापा कहते है बेटा जैसे झुण्ड से भटका पक्षी एक दिन अपने झुण्ड में वापस चला जाता है। ठीक उसी तरह छोटे- छोटे गावों और कस्बो से मेट्रोज़ में अपनी ज़िन्दगी बनाने आये लोग भी एक न एक दिन अपनी कर्मभूमि को छोड़कर अपनी जन्मभूमि में वापस ज़रूर लौटते है। लेकिन अब लगता है कि पापा यहाँ न ही आयें तो अच्छा है।

किसी को अगर उसके किये की सज़ा देनी हो तो उसे माफ़ कर दो, यही उसकी सबसे बड़ी सज़ा है, क्योंकि हमेशा गलती सहने वाले से ज्यादा गलती करने वाला अपने किये की सज़ा भुगतता हैसमय ख़राब है शायद तभी इतना कुछ देखने को मिला। जब वक़्त सही होगा तब सब कुछ अपने आप सही होता चला जायेगा यहीं मानकर बीती बातो को भुलाने के बाद आगे के बारे में सोचो और हमेशा आगे की और अग्रसर रहोयह मूल मन्त्र मुझे मेरे गुरु से प्राप्त हुआ है उनको देखकर ही इतना कुछ सीखा है मैंने। उनका एक स्लोगन मुझे अच्छा लगता है कि
''हर मील के पत्थर पे ये इबारत लिख दो, कमज़ोर इरादों से कभी मंजिल नहीं मिलती'' ।

समय ही बलवान है ....

जब वक़्त ख़राब होता है तब कुछ भी ठीक नहीं रहता, ना इंसान ना काम। समय अपनी गति से ही चलता है और हमें लगता है कि आखिर यह बुरा वक़्त कब जायेगा। बीतते हुए हर पल से इससे हमें सीख लेनी चाहिए कि शायद इससे भी कुछ बुरा हो सकता था, पर हुआ नहीं....जीवन के मूल्य को समझो और यकीन करो कि तुम भी दुनिया के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हो। ऐसा मान लेने से कभी भी कहीं भी कमज़ोर नहीं पड़ोगे। वो कहते है कि... जीवन को केवल जीना ही नहीं, जीने का एक अंदाज़ भी ज़रूरी है। बुरे वक़्त में अक्सर इंसान सबसे ज्यादा तब अकेला हो जाता है, जब वो खुद ही अपना साथ छोड़ देता है। लेकिन हार कर कोई जीत पाया है भला???
मेरा तो ऐसा मानना है की हर किसी का बुरा वक़्त आना चाहिए इससे पता तो चल जाता है कि कौन आपका अपना है और कौन पराया... लेकिन दूसरों के साथ उनके जैसा ही व्यवहार करने से उनमें और हम में क्या फरक रह जायेगाहमें हमेशा दूसरों कि अच्छाइयों और अपनी बुराईयों को देखना चाहिए तभी अपने और दूसरे के बीच का अंतर समझ में आता है

गुज़रता वक़्त बहुत ख़राब है, अपने आपको सम्भाल कर चलो। क्यों किसी से कोई झगड़ा मोल लेना।
मानो तो सभी अपने है। ना मानो तो लाखो कि भीड़ में तुम ही एक अकेले हो।




चढ़ता - उतरता प्यार का बुखार...(इमोशनल अत्याचार)

बिल्ली जब ढूध पीती है तो सोचती है कि उसे कोई नहीं देख रहा, लेकिन बिल्ली के खुद आँख बंद कर लेने से सच्चाई नहीं बदल जाती। हक़ीकत कुछ और ही होती है ठीक उसी तरह जब हम आपस में एक दूसरे को धोखा देते हैं तो समझते हैं कि अगले को कुछ पता नहीं चलेगा। लेकिन सच कभी छुपाये छुपा है भला....? देर सवेर ही सही, सच किसी किसी तरह लोगों के सामने ही जाता है। अब बुद्धू बक्से की बात करें और उसके रिअलिटी शोज़ की बात करें तो कुछ बिल्ली और उसकी सोच का अलग ही बोध होता है ।
बुद्धू बक्से ने लोगों को घर घुसरा बनाने के बाद एक नया तरीका निकाला है, लोगों को अपने चंगुल में फंसाने का। यू टीवी बिंदास पर आने वाले प्रोग्राम "इमोशनल अत्याचार" के पहले से लेकर अब तक के लगभग सभी एपिसोड मैंने देखे हैं । इसमें लोगों के प्यार में लायल होने का पता लगाया जाता है। प्यार में सही और गलत होने का यह अच्छा तरीका निकाला है इस चैनल वालो ने, जिसमें अब तक केवल एक केस में पोजिटिव रेस्पोंस आया, बाकी में नेगेटिवइसका मतलब केवल यही पता लगा सकते हैं कि कौन इंसान कितना सही है और कितना गलत.....| वो भी अपने एक अलग ही तरीके से जिसमें यह परोसते हैं तो केवल अश्लीलता। इससे कुछ हो या ना हो, लेकिन लोगों के सिर पर प्यार का बुखार चढ़ता है, तो कभी उतरता है और उतर कर फिर चढ़ जाता है...| इस शो के चलते लोगों का ज़िन्दगी के प्रति एक और नजरिया बन गया है कि.... आये तो बेस्ट नहीं तो नेक्स्टघर घुसरा बनाने के बाद अब अपने देखाए रास्तों पर चलाने की साजिश कर रहा है ये बुद्धू बक्सा

महिला दिवस पर भी कमाने को मजबूर है मातृत्व



महिला दिवस जो की हर वर्ष आठ मार्च को मनाया जाता है। यह दिवस महिलायों को पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिलकर चलने के लिये धन्यवाद के रूप में मनाया जाता है, साथ ही इस दिन प्रत्येक मनुष्य हर नारी के प्रति आभार प्रकट करता है, कोई साथ चलने के लिये, कोई ख्याल रखने के लिये तो कोई दुनिया में लेन के लिये। लेकिन क्या यह आभार केवल ऊँचें ओहदों पर बैठी बेटियों, महिलायों या माताओं के प्रति ही प्रकट किया जाना चाहिये? और वो मातायें, बहनें जो गरीबी से लड़ने की कोशिश में लगी रहती है, जिन्हें दीनदुनिया से कोई मतलब नहीं है। यह जानती हैं तो बस दो जून की रोटी कमाना और सामने आती परेशानियों से लड़ना, जूझना और जूझते - जूझते जीना। क्या वो महिलाएं नहीं है ??
प्रशासन को भी बस वही महिलाएं नज़र आती है जो ऊँचे ओहदों पर बैठी है और जिनका नाम जानी मानी हस्तियों में शुमार है शायद इसीलिए महिला दिवस के मौके पर रायपुर में महिला महोत्सव के नाम पर जलसे का का आयोजन किया गया उन महिलायों का क्या जिन्हें न तो महिला दिवस का मतलब मालूम है और न ही वे जानना चाहती है उन्हें तो मतलब है सिर्फ और सिर्फ अपनी मेहनत से जिसके भरोसे वें खुद भी जीती है और हम जैसों को जीने की कला भी सिखाती है असली मात्र शक्ति वही है जिनको नमन करने के लिये न तो किसी जलसे की आवश्यकता है और न ही किसी महोत्सव की। बिना किसी लाग लपेट के अंतर मन के भावों से हम करते है उन्हीं महाशक्तियों को नमन।

ज्यादा पैसे का नतीजा; कौन चाचा और काहे का भतीजा..
















क्या ज़माना है? दुनिया में पैसा क्या आया, रिश्तों का नामो निशान मिट गया। क्या रिश्ते क्या नाते...? लोगों को दिखता है तो पैसा, पैसा और बस पैसा.....; बंद मुट्ठी लिये आया था, हाथ पसारे जाना है। पैसा यहीं रह जायेगा, इन रिश्तों को ही ले जाना है। आज के दौर में जीवन में क्या - क्या नहीं देखने को मिल रहा है। वैसे तो मेरी उम्र ज्यादा नहीं है, लेकिन फिर भी अभी तक जो भी देखा समझा है, वो बाकी की ज़िन्दगी को निभाने के लिये काफी है। पैसा है तो, दुनिया आपको पूछेगी और जानेगी, आपके रिश्तों से आपको कोई नहीं जानता, और ना ही जानना चाहता है। अमीर के कुत्ते की भूख सबको दिखती है, लेकिन गरीब का दर्द न किसी को दिखता और न ही कोई उसकी तकलीफ किसी को महसूस होती है। हाय पैसा! हाय पैसा! करती और रंग बदलती इस दुनिया में, अब पैसा कमाऊं... या अपने रिश्तों के प्रति अपना फ़र्ज़ निभाऊं। पैसा कमाने जाती हूँ तो, रिश्ते नहीं निभा सकती और रिश्ते निभाने जाती हूँ तो, पैसा नहीं कमा सकती। अब क्या करूँ? मैं तो सोचती ही रह गई... और लोग रिश्तों को भूल कर पैसे कमाने के लिये आगे बढ़ गये।
और किसी को नहीं तो आज कल इमाजिन टी वी पर आने वाले राहुल दुलहनिया ले जायेगा... रियलिटी शो के मुख्य पात्र राहुल महाजन को ही ले लीजिये। चाचा की चिता अभी ठंडी भी नहीं हुई और ये जनाब चले हैं, दुल्हनिया लेने। फिर चाहे उस शादी में राहुल की दादी शरीक हो या न हो, इससे इन्हें कोई फरक नहीं पड़ता । ऐसा करें भी क्यों नहीं... क्यूंकि, जीतने वाली दुल्हन को इनाम के तौर पर मिलने वाली नकद राशि और हीरे की अंगूठियाँ दहेज़ के रूप में आखिर में अब इन्हें ही तो मिलेंगी ना। शादी का क्या है......जैसे पहले की शादी टूटने का कारण पायल रस्तोगी बनी थी। क्या पता के इस शादी के ना बचाने का कारण शायद कहीं मोनिका बेदी बन न जाएँ ।

खैर मुझे इन सब बातो से क्या लेना... मुझे तो अपने बारे में सोचना है , क्या करे ज़माना सिर्फ अपने बारे में सोचने का ही है। पैसे का क्या है? वो तो.. मैं कभी भी कमा सकती हूँ। लेकिन अगर जो एक बार अपने रिश्ते- नाते खो बैठी तो फिर कभी नहीं कमा पाऊँगी। क्यूंकि मुझे पता है कि ...
चाहे... मैं लाख कमा लूँ हीरे मोती॥
पर रखूंगी कहाँ....?? कफ़न में तो जेब ही नहीं होती।।

भरोसा या विश्वासघात, भावनाओं का भददा मजाक...


रो कर पूछने और हँसकर उड़ा देने वाले लोगों की इस दुनिया में किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। कहने को तो यहाँ कई रिश्ते है जैसे- माँ, बाप, भाई और बहन। इनके अलावा भी हम कई रिश्तों में बंधे है लेकिन इतने रिश्तों की भीड़ होने के बावजूद हम दुनिया में बिलकुल अकेले है। इस बात का इल्म हम सभी को एक -न- एक दिन ज़रूर होता है। कोई आपका नहीं होता आपका साथ केवल आपको ही निभाना पड़ता है। ज़िन्दगी; वक़्त की कसौटी पर बिछी शतरंज की उस बिसाद की तरह है, जिसमें खुद ज़िन्दगी ही हमें मिले रिश्तों को रिश्तों को गोटियों की मिसाल देकर हमें समाज के नियमों से झूझने के लिये छोड़ देती हैअब तो यह हाल है कि किसी को दिल कि बात बताने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है। वो कहते है ना... कि दूध का जला हुआ छाज को भी फूंक फूंक कर पीता है। बावजूद इसके कि कुछ रिश्ते वास्तविकता से कोसो दूर होते है। और जिन्हें जिन्दादिली से जिया जाता है कभी कभी सोचने को मजबूर होना पड़ता है, कि ज़िन्दगी को हम चलाते है या ज़िन्दगी हमें चलाती है अक्सर परिस्थितयां ऐसी भी हो जाती है की मर्ज़ी हो या ना हो, ज़िन्दगी के हाथों की कठपुतली सभी को बनाना पढ़ जाता है। लेकिन क्या किसी की भावनायो का कोई मोल नहीं है। भगवान ने हमें जितनी सांसे दी है उससे कहीं ज्यादा भावनाएं दी है। जितना समझाने की कोशिश करती हूँ, उतना ही उलझती चली जाती हूँ। जिंदा लाश की तरह जीवन जीने से अच्छा है कि कठपुतली बन निशब्द खड़ी सब देखती रहूँ।

जीवन एक सफ़र या केवल संघर्ष...

जब मुफलिसी घर में आती है, तो लोगों के आपस का प्यार सबसे पहले खिड़की से कूद कर बाहर चला जाता है यह तो मालूम था। लेकिन बुरा वक़्त जाते - जाते अपने साथ रिश्तों की गहरी से गहरी मिठास को भी ले जाता है। यह अब जाके जाना है। कभी - कभी मन में यह ख्याल आता है, कि जाने खुदा ने भी क्या सोच कर सबकी तकदीर लिखी होगी, जो कि लोगो ऐसे दिन दिखा देती है, जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। कहते हैं, कि किसी भी रेस में हार कभी उसकी नहीं होती जो कि पीछे छूट जाता है बल्कि उसकी होती है...जो गिरकर वापस नहीं उठ पाता। ठीक उसी तरह इंसान भी केवल वही है जो गिर के वापस खड़ा हो और संघर्ष करे। लेकिन जो बार- बार गिर जाये वो भला कितनी बार उठेगा। ज़िन्दगी को मैंने अपने नजरिये से देखा तो लगा कि दूसरों के लिए जीना ही असली जीवन है। पर अब ऐसा लगता है कि आखिर कोई कब तक दूसरों के लिए जीता रहेगा...? क्या अपनी ख़ुशी के लिये जीना ज़िन्दगी नहीं है। कभी सुना था कि ज़िन्दगी; मौत के सफ़र में दुखों की कड़ी धूप से बचाने वाला वो छायादार पेड़ है, जो सुखो की इतनी शीतल और ताज़ी छाया देता है कि दुखों की धूप और गरम हवाओं का एहसास तक नहीं होता। फिर यह जो सब कुछ हो रहा है वो सब क्या है........? अब जब ईश्वर से आमना सामना होगा तब बस एक यही सवाल होगा मेरे पास।

जलन नहीं बराबरी करो..

क्या कभी ये जानने की कोशिश की है............कि
बंद मुठ्ठी और खुले हाथ में क्या फर्क है ?
ईश्वर के सृष्टि बनाने और मानव को जीवन देने के पीछे क्या तर्क है........... ??

ईश्वर ने हमें ज़िन्दगी; जैसा अनमोल तोहफा देने के बाद भी हम सभी को कोई न कोई एक खास खूबी देकर हमें एक दूसरे से अलग बनाकर अपनी रहमत से भी नवाज़ा है। इस सच्चाई से वाकिफ़ होते हुए भी हम उसकी इनायत की कद्र नहीं करते। आगे बढ़ने की बजाये दूसरो को पीछे धकेलने और उनसे जलने में लगे रहते है। भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में इतना वक़्त ही कहाँ है, कि हम दूसरों के बारे में ज़रा भी सोच सके। लेकिन यह सब सोचने कि बजाए हम दूसरों से जलने का काम करते है। फिर न जाने कब यह जलन अन्दर ही अन्दर कुढ़न बन जाती है और हमें पता ही नहीं चलता। ऐसे हाल में आगे बढ़ने की बात के बारे में सोच पाना भी मुश्किल हो जाता है। शायद हम जलन के मारे यह भूल जाते है कि कौआ चाहे जितना भी काक ले, कभी कोयल नहीं बन सकता।

"इंसान" सृष्टि कि सबसे बड़ी संरचना है, जिसमें सिक्के के दो पहलुओं कि तरह खूबियों के साथ साथ खामिया भी है। आज उसे यह पता नहीं शायद, कि दुनिया को जैसी नज़र का चश्मा पहन कर देखोगे; दुनिया वैसी ही नज़र आएगी। यह समाज चाहे जैसा भी हो है तो हमारा ही और इसे अच्छा या बुरा बनाना भी तो सिर्फ और सिर्फ भी हमारे ही हाथों में है।

कहाँ है भारत देश के वासी.....

सच और झूठ की इस कशमकश में इंसान क्यों दूसरे इंसान का दुश्मन बनता चला जा रहा है। क्यों आज एक इंसान किसी दूसरे इंसान का भला होता नहीं देख पा रहा है। ऐसे में इंसानियत के चोगे में खुद को लपेट कर, क्या खुद को इंसान मान लेने से कपड़ो के अन्दर का हमारा नंगापन ढक जायेगा..?
नहीं...; क्योंकि हम हर इंसान को धोखा दे सकते है, लेकिन खुद को झांसा नहीं दे सकते।
क्या सभी खुद का लिज़लिज़े शरीर को कपड़े मात्र से ढककर अपने अस्तित्त्व को ही खत्म कर लेते है। आईने के सामने कभी गौर से देखा अपने आपको...........? या अब सिर्फ बाल कोरने और खुद को एक नज़र भर देखने के लिए आईने का इस्तेमाल कर रहा है आज का भारतीय???
संस्कारो की आड़ में स्वयं को अभद्रता की आग में झोंक देने के बाद भी हम कैसे कह सकते है, कि हम भारत देश के निवासी है। जहाँ के वासियों को सिर्फ उनकी मानवता के लिये ही जाना जाता है। यह वही भारत देश है जिसके रिति - रिवाजों, संस्कारो और संस्कृतियों का डंका सारी दुनिया में बजता रहा है। कृषि प्रधान देश होने के बावजूद भले ही यहाँ का निवासी निरक्षरता के अंधेरों में रहा हो, लेकिन बेरोज़गारी के थपेड़ो से हमेशा बचा रहा है यहाँ पत्थरो को भी भगवान का दर्जा दिया जाता है, तो वहीँ अतिथियों को देवों सा मान मिलता है। लेकिन अब यह सब कहीं ना कहीं किताब में कहानियों की तरह दब के रह गया है। या फिर यूँ कहें कि पश्चिमी सभ्यता ने इसे अपने कदमों तले रौंद कर रख दिया है। आज का भारती केवल खुद को दूसरों से बेहतर बताना और दिखाना चाहता है। वह केवल पश्चिमी सभ्यता के वशीभूत होने की पुरजोर कोशिश में लगा है। लेकिन आज भी उसे पश्चिमी देशो की प्रगति का मूल मंत्र मालूम नहीं है। सिर्फ पाश्चात्य कपड़े पहन कर कोई विदेशी नहीं हो जाता आवश्यकता है मानसिकता को बदलने और मनोबल को बढ़ाने की, या फिर टटोलने और तलाशने के बाद खूबियों की तरह अपने अन्दर उतारने की..... आने वाली पीढ़ी को कैसे भारत से रूबरू करवाना है अब यह तो बस हम भारतीयों के ही हाथो में है। मैंने इस ब्लॉग में लिख कर आप को आप ही के सामने रख कर अपने फ़र्ज़ को पूरा किया है। आप इसे किस नज़रिए से देखते है यह तो आप पर ही है।