मन की व्यथा... !!!!

मैं कहाँ गलत हूँ..? क्या मैं वाक़ई गलत हूँ...? मैंने क्या वाक़ई में किसी का कुछ बिगाड़ा है....? फिर क्यों मैं ही हमेशा अकेली रह जाती हूँ.... ? मेरा क्या कसूर है ....?

मेरे मन में आते-जाते कई सवाल क्यूँ मुझे विचलित कर देते है।कई सवालो के जवाब जैसे आज भी तलाश में  जारी है ।और शायद इन सवालो के जवाब कभी मिले भी ना।फिर भी मन बेचैन हो जाता है।मैंने हमेशा खुद से जुड़े रिश्तो में अपना शत प्रतिशत देने की कोशिश की है, फिर क्यों कोई मुझे समझने की कोशिश नहीं करता।
मैं यह भी जानती हूँ की जितना लोगो से उम्मीद रखूंगी उतनी ही तकलीफ पाऊँगी।लेकिन फिर भी मै हमेशा दूसरों को ख़ुशी देने की जदोजहद में खुद को तकलीफ देती रहू। मेरा ऐसा करना कहाँ तक सही है...?

मेरे ना कुछ कहने या ना कुछ चाहने से क्या मेरी कोई ख्वाइश नहीं हो सकती। या कोई अनकही उम्मीद रखना भी खास कर उन रिश्तो में जिन्हे आप जीते हो और हमेशा संजोय रखना चाहते हो; ग़लत है ..?

मन के उन्स को मैंने कभी जग जाहिर नहीं होने दिया। न मैंने चाहा की कोई मेरे लिए बड़े तोहफे लाये या घुमाये फिराए। चाहा तो बस इतना कि.. . कोई पास बैठे मुझे समझे , मुझे जाने।  जिससे दिल की हर बात बोल सकूँ।  खुल के खुद को बयां कर सकूँ लेकिन शायद औरत होने के नाते मेरी इतनी आशाये रखना गलत है। लेकिन औरत होने के चलते  मेरा इंसानी दुःख या उसके दर्द के मायने बदल जायेंगे..... ?  पुरुष प्रधान मुल्क का हिस्सा होना और फिर उसपे अपनी इच्छाएं रखना लोगो की नज़र में गलत हों सकता है मेरी नहीं.... ।

लेकिन जैसी नज़र का चश्मा पहन के देखोगे दुनिया वैसी ही तो दिखेगी।  आज की चकाचौंध भरी दुनिया में इंसान पैसा कमाने, शौहरत बनाने और नाम कमाने में लगा पड़ा है।  ऐसे में खुद से जुड़े रिश्तो में वो कितनी कड़वाहट भर रहा है ना जाने कब समझेगा। ऐसा ना हो जब तक लोग.... समझे उनके रिश्ते दम तोड़ दें।

स्वामी विवेकानंद जी ने ठीक ही कहा है......  ज़रूरी नहीं के जीवन में अनेको रिश्तें हो। ज़रूरी तो यह है कि, ख़ुद से जुड़े रिश्तों में जीवन ज़रूर हो।  

The women in the City...



नमस्कार ... कैसे हैं आप सभी .... ? बहुत दिनों के बाद वापसी हुई है मेरी अपने ही ब्लॉग पे।

इतने दिनों में किसी की बेटी और बहन से किसी की पत्नी और बहू तक का सफर तय कर लिया है। मै अब मै कहाँ रह गई हूँ ??  एक बेहद ही मशहूर फिल्मी डायलॉग है कि... एक चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो चुन्नी बाबू ,सुहागन के सर का ताज होता है एक चुटकी सिंदूर। कभी किसी औरत के दिल से पूछो तो वो बताएगी कि.....एक चुटकी सिन्दूर भले ही पुराने रिश्तों में कुछ नए रिश्ते ज़रूर जोड़ देता है लेकिन उसकी खुद की पहचान और कुछ कर गुज़रने के जस्बे को भी तार-तार  कर के रख देता है। उसकी खुद की ज़िन्दगी मानो  जैसे कहीं ग़ुम सी हो जाती है। उसके सपने अब उसके नहीं रह जाते और पति और परिवार की उम्मीदों और ख्वाहिशों को ही उसे अपने सपने, अस्तित्व की पहचान और जीना का मकसद मान के जीना पड़ता है।

आखिर कब तक औरतो को समाज के दक़िया नूसी  आडम्बरों को अपना के जीना पड़ेगा।  कब तक वो रीती रिवाज़ो और परपराओं के नाम से सूली चढ़ती रहेगी। आज की नारी को सीता और अनुसुइया होने के साथ साथ दुर्गा और चण्डी भी बनना पड़ेगा।  शायद तब समाज और समाज के ठेकेदार औरत और उसकी गरिमा को समझेंगे।  मैंने अपनी गरिमा बनाने के लिये अपना पहला कदम बढ़ा दिया है।  किसी की बेटी और किसी की पत्नी होने का तमगा तो मिल ही चूका है जो आखरी साँस तक साथ रहने ही वाला है लेकिन  मुझे अपनी पहचान अलग से बनानी है।

हालांकि यह कदम उठाने में मुझे बहुत समय लग गया लेकिन देर अब भी नहीं हुई है।  शुरुआती कदम छोटे और कमज़ोर ज़रूर हैं लेकिन आगे चलके बड़े और मज़बूत भी मुझे यही बनाएंगे। शहर की भीड़ में आज अकेली हूँ तो क्या कल इसी भीड़ से आगे निकल के दिखाना है।  मुझे किसी को कुछ साबित करके नहीं दिखाना है बस खुद को खुद के नाम से जाना जाने की इच्छा है और  इतना तो सभी का हक़ है तो मेरा क्यों नहीं।

मन में उठते डर और व्यर्थ की चिंताओं को पीछे छोड़ के आगे बढ़ने का समय अब आ गया है।  पहला कदम मैंने ब्लॉग पे वापसी कर के ले लिया है अब पीछे मूड़ के नहीं देखना है।