The women in the City...



नमस्कार ... कैसे हैं आप सभी .... ? बहुत दिनों के बाद वापसी हुई है मेरी अपने ही ब्लॉग पे।

इतने दिनों में किसी की बेटी और बहन से किसी की पत्नी और बहू तक का सफर तय कर लिया है। मै अब मै कहाँ रह गई हूँ ??  एक बेहद ही मशहूर फिल्मी डायलॉग है कि... एक चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो चुन्नी बाबू ,सुहागन के सर का ताज होता है एक चुटकी सिंदूर। कभी किसी औरत के दिल से पूछो तो वो बताएगी कि.....एक चुटकी सिन्दूर भले ही पुराने रिश्तों में कुछ नए रिश्ते ज़रूर जोड़ देता है लेकिन उसकी खुद की पहचान और कुछ कर गुज़रने के जस्बे को भी तार-तार  कर के रख देता है। उसकी खुद की ज़िन्दगी मानो  जैसे कहीं ग़ुम सी हो जाती है। उसके सपने अब उसके नहीं रह जाते और पति और परिवार की उम्मीदों और ख्वाहिशों को ही उसे अपने सपने, अस्तित्व की पहचान और जीना का मकसद मान के जीना पड़ता है।

आखिर कब तक औरतो को समाज के दक़िया नूसी  आडम्बरों को अपना के जीना पड़ेगा।  कब तक वो रीती रिवाज़ो और परपराओं के नाम से सूली चढ़ती रहेगी। आज की नारी को सीता और अनुसुइया होने के साथ साथ दुर्गा और चण्डी भी बनना पड़ेगा।  शायद तब समाज और समाज के ठेकेदार औरत और उसकी गरिमा को समझेंगे।  मैंने अपनी गरिमा बनाने के लिये अपना पहला कदम बढ़ा दिया है।  किसी की बेटी और किसी की पत्नी होने का तमगा तो मिल ही चूका है जो आखरी साँस तक साथ रहने ही वाला है लेकिन  मुझे अपनी पहचान अलग से बनानी है।

हालांकि यह कदम उठाने में मुझे बहुत समय लग गया लेकिन देर अब भी नहीं हुई है।  शुरुआती कदम छोटे और कमज़ोर ज़रूर हैं लेकिन आगे चलके बड़े और मज़बूत भी मुझे यही बनाएंगे। शहर की भीड़ में आज अकेली हूँ तो क्या कल इसी भीड़ से आगे निकल के दिखाना है।  मुझे किसी को कुछ साबित करके नहीं दिखाना है बस खुद को खुद के नाम से जाना जाने की इच्छा है और  इतना तो सभी का हक़ है तो मेरा क्यों नहीं।

मन में उठते डर और व्यर्थ की चिंताओं को पीछे छोड़ के आगे बढ़ने का समय अब आ गया है।  पहला कदम मैंने ब्लॉग पे वापसी कर के ले लिया है अब पीछे मूड़ के नहीं देखना है।


0 Response to "The women in the City..."

Post a Comment