जीना क्या जीवन से हार के......

वक़्त के थेपेड़े  क्या कुछ देखने और सहने पर मजबूर नहीं कर देते l कभी - कभी तो सोचने पर विवश होना पड़ता है कि ऐसा भी कुछ हो सकता है भला........? जैसे - जैसे समय का पहिया चलता है, इंसान जीवन को संघर्ष करता हुआ उसी समय में जीता है l  एक  इसी आस में... कि रात के बाद सवेरा  जरूर होता है l  मगर कोई कब तक बर्दाश  करे...?  एक दिन तो सब्र का बाँध टूट ही जाता है l तब ज़िन्दगी  एक बोझ से कुछ कम नहीं लगती, और ऐसे में हम भगवान् को कोसते है l बावजूद यह याद रखने के, कि भगवान् तो हमेशा हमारे साथ है l बस दिखाई नहीं देते l वो भी तो जानना चाहते है, कि मुसीबत की घड़ी में हम उनपर कितनी श्रद्धा बनाये रखते है ?? वक़्त अपनी गति से चल रहा है, और उसके साथ ही साथ हम अपनी l  ऐसे में सबसे ज्यादा तकलीफ तब होती है, जब बेगानों की भीड़ में हमारे अपने भी हमारा साथ छोड़ते देखाई देते है l और गैर आपका साथ निभाते है l ऐसे में मन में एक सवाल टीस मरता है, कि क्या हमारेअपने  केवल सुख के साथी है, दुःख में कोई किसी का नहीं होता........?

पर वो इंसान ही क्या जो जीवन से हार जाये..... संघर्षों का नाम ही तो ज़िन्दगी है l जब काले घने  अंधेरो के बीच कोई राह नज़र ना आये, तब सब कुछ परमात्मा पर छोड़ देना चाहिए l बावजूद इसके की जीवन को खत्म करने पर उतारू हो जाना चाहिए l जीवन तो चलते रहने का नाम है l चाहे हवाओं का रुख़ हमारी ओर हो या न हो l

ख़ैर............इन्सान की ख्वाइशों  की कोई इन्तहां नहीं होती l
                  दो गज़ ज़मीन चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद l

वाह! वाह! रायपुर हाय.. हाय.. मीडिया

वाह रे, रायपुर शहर तेरे क्या कहने...? जवाब नहीं तेरा। जिसको काम की ज़रूरत है उसे काम नहीं मिलता और जिसे नहीं है उसे आराम नहीं मिलता। मिनी बॉम्बे कहे जाने वाले रायपुर में मीडिया का आज इतना भददा मजाक उड़ा है कि किसी से ना तो हँसते बन रहा है और ना ही अपनी हंसी को रोकते बन रहा है। यहाँ भी अन्य बड़े शहरों की ही तरह काबिलियत और शिक्षा के ज़रिये नहीं, बल्कि नाम और पहुँच के बलबूते ही काम मिलता है। काम चाहे छोटा हो या बड़ा उसे पाने के लिये आपकी पहुँच उस काम से बड़ी होनी चाहिए। वरना... यहाँ तो एक अनार के लाखों बीमार मिलते हैं। मेहनत और संघर्ष देखा है किसी ने....? नहीं इसके अलावा आप जो चाहे करवा लो।
मीडिया शुरुआत से ही लोकतंत्र का चौथा और सबसे ज्यादा प्रभावशाली और महत्वपूर्ण स्तम्भ माना गया है। जिसने हमेशा लोगों को जागरूक करने के साथ साथ सच्चाई और वास्तविकता से भी रूबरू कराया है। तभी तो मीडिया कर्मियों से सब डरते है और उनकी इज्ज़त भी करते है। लेकिन आज जो कुछ देखने सुनने को मिला उस बात ने रायपुर की पत्रकारिता को मज़ाक तो बना ही दिया साथ ही यहाँ के उद्गामी पत्रकारों शर्मसार भी किया है। शुरुआत में ५६ देशों में दिखने का दावा करते आये हिंदुस्तान चैनल को रायपुर में किसी ने नहीं देखा था। उसके बाद रायपुर में दिखने के बाद यह बाकी की ५६ देशो से गायब हो गया। इसके ऑफिस में श्रम विभाग द्वारा मारे गये छापे से पता चला की पत्रकार को यहाँ पत्रकार नहीं बल्कि बंधुआ मजदूर की तरह इस्तेमाल किया जाता था। जिसमें एक दिन की कमाई पुरे दिन के काम के अनुसार होती थी। काम नहीं तो पगार नहीं.... यह यहाँ का उसूल हुआ करता था। आज की स्थिति यह है की काम नहीं और अब चैनल भी नहीं। छोटी छोटी उम्र में बड़े बड़े ओहदों पर बैठे लोगों का तजुर्बा मुश्किल से से महीने का ही है। और वैसे भी रायपुर के पूरे मीडिया क्षेत्र का यही हाल है। अगर सभी गड़े मुर्दे उखाड़े जाये तो ना किसी के पास पत्रकारिता की डिग्री है और ना इसके प्रभाव की छाप।शादी ब्याह में केमरा चलाने वाले लोग यहाँ केमरामेन है तो १२ पास करके नोटों की गड्डीयां कमाने की चाह रखने वाले यहाँ पत्रकार हैं। कहने को खुद को सबसे अच्छा और तेजस्वी पत्रकार बताते है। जिनके तेज से पूरा प्रेस क्लब और रायपुर दोनों वाकिफ है. सड़क के किनारे कपड़े इस्त्री करने वाले धोबी भी अपनी गाड़ियों पर प्रेस लिखवा कर चलते है। पूछने पर कहते है कपड़े प्रेस करते है तभी तो प्रेस वाले है।
रायपुर की मीडिया के हालात देखकर तो यही शेर याद आता है- अजब तेरी किस्मत, अजब तेरा खेल, छछूंदर के सर में चमेली का तेल