जलन नहीं बराबरी करो..

क्या कभी ये जानने की कोशिश की है............कि
बंद मुठ्ठी और खुले हाथ में क्या फर्क है ?
ईश्वर के सृष्टि बनाने और मानव को जीवन देने के पीछे क्या तर्क है........... ??

ईश्वर ने हमें ज़िन्दगी; जैसा अनमोल तोहफा देने के बाद भी हम सभी को कोई न कोई एक खास खूबी देकर हमें एक दूसरे से अलग बनाकर अपनी रहमत से भी नवाज़ा है। इस सच्चाई से वाकिफ़ होते हुए भी हम उसकी इनायत की कद्र नहीं करते। आगे बढ़ने की बजाये दूसरो को पीछे धकेलने और उनसे जलने में लगे रहते है। भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में इतना वक़्त ही कहाँ है, कि हम दूसरों के बारे में ज़रा भी सोच सके। लेकिन यह सब सोचने कि बजाए हम दूसरों से जलने का काम करते है। फिर न जाने कब यह जलन अन्दर ही अन्दर कुढ़न बन जाती है और हमें पता ही नहीं चलता। ऐसे हाल में आगे बढ़ने की बात के बारे में सोच पाना भी मुश्किल हो जाता है। शायद हम जलन के मारे यह भूल जाते है कि कौआ चाहे जितना भी काक ले, कभी कोयल नहीं बन सकता।

"इंसान" सृष्टि कि सबसे बड़ी संरचना है, जिसमें सिक्के के दो पहलुओं कि तरह खूबियों के साथ साथ खामिया भी है। आज उसे यह पता नहीं शायद, कि दुनिया को जैसी नज़र का चश्मा पहन कर देखोगे; दुनिया वैसी ही नज़र आएगी। यह समाज चाहे जैसा भी हो है तो हमारा ही और इसे अच्छा या बुरा बनाना भी तो सिर्फ और सिर्फ भी हमारे ही हाथों में है।

कहाँ है भारत देश के वासी.....

सच और झूठ की इस कशमकश में इंसान क्यों दूसरे इंसान का दुश्मन बनता चला जा रहा है। क्यों आज एक इंसान किसी दूसरे इंसान का भला होता नहीं देख पा रहा है। ऐसे में इंसानियत के चोगे में खुद को लपेट कर, क्या खुद को इंसान मान लेने से कपड़ो के अन्दर का हमारा नंगापन ढक जायेगा..?
नहीं...; क्योंकि हम हर इंसान को धोखा दे सकते है, लेकिन खुद को झांसा नहीं दे सकते।
क्या सभी खुद का लिज़लिज़े शरीर को कपड़े मात्र से ढककर अपने अस्तित्त्व को ही खत्म कर लेते है। आईने के सामने कभी गौर से देखा अपने आपको...........? या अब सिर्फ बाल कोरने और खुद को एक नज़र भर देखने के लिए आईने का इस्तेमाल कर रहा है आज का भारतीय???
संस्कारो की आड़ में स्वयं को अभद्रता की आग में झोंक देने के बाद भी हम कैसे कह सकते है, कि हम भारत देश के निवासी है। जहाँ के वासियों को सिर्फ उनकी मानवता के लिये ही जाना जाता है। यह वही भारत देश है जिसके रिति - रिवाजों, संस्कारो और संस्कृतियों का डंका सारी दुनिया में बजता रहा है। कृषि प्रधान देश होने के बावजूद भले ही यहाँ का निवासी निरक्षरता के अंधेरों में रहा हो, लेकिन बेरोज़गारी के थपेड़ो से हमेशा बचा रहा है यहाँ पत्थरो को भी भगवान का दर्जा दिया जाता है, तो वहीँ अतिथियों को देवों सा मान मिलता है। लेकिन अब यह सब कहीं ना कहीं किताब में कहानियों की तरह दब के रह गया है। या फिर यूँ कहें कि पश्चिमी सभ्यता ने इसे अपने कदमों तले रौंद कर रख दिया है। आज का भारती केवल खुद को दूसरों से बेहतर बताना और दिखाना चाहता है। वह केवल पश्चिमी सभ्यता के वशीभूत होने की पुरजोर कोशिश में लगा है। लेकिन आज भी उसे पश्चिमी देशो की प्रगति का मूल मंत्र मालूम नहीं है। सिर्फ पाश्चात्य कपड़े पहन कर कोई विदेशी नहीं हो जाता आवश्यकता है मानसिकता को बदलने और मनोबल को बढ़ाने की, या फिर टटोलने और तलाशने के बाद खूबियों की तरह अपने अन्दर उतारने की..... आने वाली पीढ़ी को कैसे भारत से रूबरू करवाना है अब यह तो बस हम भारतीयों के ही हाथो में है। मैंने इस ब्लॉग में लिख कर आप को आप ही के सामने रख कर अपने फ़र्ज़ को पूरा किया है। आप इसे किस नज़रिए से देखते है यह तो आप पर ही है।