कद बड़ा हो ना हो ;किरदार बड़ा होना चाहिये !!!!

जीवन में हम जो चाहे वो हमें मिल ही जाये ऐसा जरुरी नहीं है | ज़िन्दगी बहुत से इम्तहान लेती है , कभी ज़िम्मेदारियों के चलते तो कभी परिस्थितियों के चलते अपनी इच्छाओं का गला घोंटना पड़ता है | लेकिन अपनी वाह वाई लूटने के लिये लोगों का  फायदा उठाना , उन्हें धोखा देना कहाँ तक सही है ..? दूसरों से रहो ना रहो आईने में खुद से नज़रे मिलाने लायक तो रहना चाहिये | बात तो तब है कि यहाँ से जाने के बाद भी आपका नाम लोग इज़्ज़त से लें , जनाज़ा उठते वक़्त कोई गुस्से या नफरत से शामिल ना हो |

धन,दौलत ,रुपया पैसा तो हर कोई कमा सकता है , मज़ा तो तब है कि जब नाम और इज़्ज़त कमाई जाए | मेरी नज़र में जिस काम को कर के मै खुद से नज़रें ना मिला सकूँ; वो गलत है | कोशिश यही रहनी  चाहिये, किसी मदद कर सको या ना कर सको , लेकिन भूल के भी किसी का दिल भी नहीं दुखाना चाहिए ,फिर जान बुझ के ऐसा करना तो दूर की बात है | 

मन की व्यथा... !!!!

मैं कहाँ गलत हूँ..? क्या मैं वाक़ई गलत हूँ...? मैंने क्या वाक़ई में किसी का कुछ बिगाड़ा है....? फिर क्यों मैं ही हमेशा अकेली रह जाती हूँ.... ? मेरा क्या कसूर है ....?

मेरे मन में आते-जाते कई सवाल क्यूँ मुझे विचलित कर देते है।कई सवालो के जवाब जैसे आज भी तलाश में  जारी है ।और शायद इन सवालो के जवाब कभी मिले भी ना।फिर भी मन बेचैन हो जाता है।मैंने हमेशा खुद से जुड़े रिश्तो में अपना शत प्रतिशत देने की कोशिश की है, फिर क्यों कोई मुझे समझने की कोशिश नहीं करता।
मैं यह भी जानती हूँ की जितना लोगो से उम्मीद रखूंगी उतनी ही तकलीफ पाऊँगी।लेकिन फिर भी मै हमेशा दूसरों को ख़ुशी देने की जदोजहद में खुद को तकलीफ देती रहू। मेरा ऐसा करना कहाँ तक सही है...?

मेरे ना कुछ कहने या ना कुछ चाहने से क्या मेरी कोई ख्वाइश नहीं हो सकती। या कोई अनकही उम्मीद रखना भी खास कर उन रिश्तो में जिन्हे आप जीते हो और हमेशा संजोय रखना चाहते हो; ग़लत है ..?

मन के उन्स को मैंने कभी जग जाहिर नहीं होने दिया। न मैंने चाहा की कोई मेरे लिए बड़े तोहफे लाये या घुमाये फिराए। चाहा तो बस इतना कि.. . कोई पास बैठे मुझे समझे , मुझे जाने।  जिससे दिल की हर बात बोल सकूँ।  खुल के खुद को बयां कर सकूँ लेकिन शायद औरत होने के नाते मेरी इतनी आशाये रखना गलत है। लेकिन औरत होने के चलते  मेरा इंसानी दुःख या उसके दर्द के मायने बदल जायेंगे..... ?  पुरुष प्रधान मुल्क का हिस्सा होना और फिर उसपे अपनी इच्छाएं रखना लोगो की नज़र में गलत हों सकता है मेरी नहीं.... ।

लेकिन जैसी नज़र का चश्मा पहन के देखोगे दुनिया वैसी ही तो दिखेगी।  आज की चकाचौंध भरी दुनिया में इंसान पैसा कमाने, शौहरत बनाने और नाम कमाने में लगा पड़ा है।  ऐसे में खुद से जुड़े रिश्तो में वो कितनी कड़वाहट भर रहा है ना जाने कब समझेगा। ऐसा ना हो जब तक लोग.... समझे उनके रिश्ते दम तोड़ दें।

स्वामी विवेकानंद जी ने ठीक ही कहा है......  ज़रूरी नहीं के जीवन में अनेको रिश्तें हो। ज़रूरी तो यह है कि, ख़ुद से जुड़े रिश्तों में जीवन ज़रूर हो।  

The women in the City...



नमस्कार ... कैसे हैं आप सभी .... ? बहुत दिनों के बाद वापसी हुई है मेरी अपने ही ब्लॉग पे।

इतने दिनों में किसी की बेटी और बहन से किसी की पत्नी और बहू तक का सफर तय कर लिया है। मै अब मै कहाँ रह गई हूँ ??  एक बेहद ही मशहूर फिल्मी डायलॉग है कि... एक चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो चुन्नी बाबू ,सुहागन के सर का ताज होता है एक चुटकी सिंदूर। कभी किसी औरत के दिल से पूछो तो वो बताएगी कि.....एक चुटकी सिन्दूर भले ही पुराने रिश्तों में कुछ नए रिश्ते ज़रूर जोड़ देता है लेकिन उसकी खुद की पहचान और कुछ कर गुज़रने के जस्बे को भी तार-तार  कर के रख देता है। उसकी खुद की ज़िन्दगी मानो  जैसे कहीं ग़ुम सी हो जाती है। उसके सपने अब उसके नहीं रह जाते और पति और परिवार की उम्मीदों और ख्वाहिशों को ही उसे अपने सपने, अस्तित्व की पहचान और जीना का मकसद मान के जीना पड़ता है।

आखिर कब तक औरतो को समाज के दक़िया नूसी  आडम्बरों को अपना के जीना पड़ेगा।  कब तक वो रीती रिवाज़ो और परपराओं के नाम से सूली चढ़ती रहेगी। आज की नारी को सीता और अनुसुइया होने के साथ साथ दुर्गा और चण्डी भी बनना पड़ेगा।  शायद तब समाज और समाज के ठेकेदार औरत और उसकी गरिमा को समझेंगे।  मैंने अपनी गरिमा बनाने के लिये अपना पहला कदम बढ़ा दिया है।  किसी की बेटी और किसी की पत्नी होने का तमगा तो मिल ही चूका है जो आखरी साँस तक साथ रहने ही वाला है लेकिन  मुझे अपनी पहचान अलग से बनानी है।

हालांकि यह कदम उठाने में मुझे बहुत समय लग गया लेकिन देर अब भी नहीं हुई है।  शुरुआती कदम छोटे और कमज़ोर ज़रूर हैं लेकिन आगे चलके बड़े और मज़बूत भी मुझे यही बनाएंगे। शहर की भीड़ में आज अकेली हूँ तो क्या कल इसी भीड़ से आगे निकल के दिखाना है।  मुझे किसी को कुछ साबित करके नहीं दिखाना है बस खुद को खुद के नाम से जाना जाने की इच्छा है और  इतना तो सभी का हक़ है तो मेरा क्यों नहीं।

मन में उठते डर और व्यर्थ की चिंताओं को पीछे छोड़ के आगे बढ़ने का समय अब आ गया है।  पहला कदम मैंने ब्लॉग पे वापसी कर के ले लिया है अब पीछे मूड़ के नहीं देखना है।


डीसीसी २०१० बोलू या.....मनमोहक और रोमाचित यात्रा कहूँ???

डिफेन्स कोर्स से आये लगभग महीना होना को आया है | मगर आज भी डीसीसी की यादे यूँ ताज़ा है मानो  कल ही की तो बात है | घर आकर बड़ा ही अजीब सा लग रहा है | वहां हर बात का एक निर्धारित समय होना और यहाँ जो मन में आये वो करो | सच कहूँ तो इस बार दिल्ली में भी मन नहीं लगा | मन में उमरते - घुमरते विचारो से जब अपने आपको टटोला तब कुछ धुंधली बाते साफ़ हुई | डी सी सी में जाने के पहले मुझे सैन्य बल के बारे में इतना कुछ नही पता था, मगर वहां जाकर सैनिको के साथ वक़्त बिताना, उनके जीवन से रूबरू होना बड़ा ही रोमांचित रहा |
हमारे पूरे एक महीने के कोर्स को तीन भागो में बांटा गया था | पहले भाग में हम विशाखापत्तनम में थे | जहाँ हमने जल सेना से जूडी हुई बारीकियो को जाना | कई जलपोत देखे, फिर पनडुब्बियो में बैठ कर समुन्द्र की अंतर आत्मा से मिलने के बाद, जल सेना के दूसरे सबसे बड़े जहाज़ रणवीर की सवारी की |  
उसके बात हम सिल्चर वारांगटे गए, जहाँ हमारा थल सेना का भाग शुरू हुआ | जिसमें हमे मार्कोस की प्रशिक्षण प्रक्रिया  को दिखाया गया | उसके बाद हमारा कारवां रवाना हुआ गुवाहाटी की तरफ, जहाँ हमें भी एके - ४७ और इंसास जैसे बंदूकों को चलने का मौका मिला | उसके बाद हम बड़े चले तेजपुर की ओर, जहाँ सेनी बल की एक और कड़ी शुरू हुई, जो की थी.... वायु सेना | तेजपुर में हमे  पूरा एक दिन आसमान की गोद में बैठने को दिया गया |  आज भी जब वो दिन याद आता है जब हम ए एन - ३६ में बैठकर पूरा आन्ध्र प्रदेश देखा और फिर भारत की सबसे बड़ी नदी ब्रह्मपुत्र का आदि बिंदु देखा, कई  ऐसे गाँव में भी गया जहाँ के लोगो की जीने का सहारा एक मात्र वायु सेना ही है | 
सिक्किम के दृश्य  तो आज भी आँखों में तरोताजा हैं | कश्मीर को धरती का स्वर्ग कहा जाता है, लेकिन पूरा सिक्किम देखने के बाद अब यह बात झूट है कहने को दिल करता है | इंडिया चाइना बार्डर पर तो मनो हमने कोई फ़तेह हासिल करली है ऐसे विचार मन में आ रहे थे |   
और फिर अंततः हमारी इस रोमांचित यात्रा के अंतिम पड़ाव की बारी आ ही गई जो की सिलीगुड़ी था, जहाँ हमे सम्मानित किया गया, और फिर भीगी पलकों और कभी न भूलने वाली यादो के साथ सभी ने एक दुसरे को विदाई दी |       


वाह! वाह! राखी.... हाय..हाय.. राहुल..

मैंने तो पहले ही कहा था....जोड़ियाँ  आसमान में बनती है | फिर स्वयंवर के नाम  पर दूसरे लोगों और अपने आप से मज़ाक किये जाने का क्या मतलब...??  राखी....क्या कहूँ इनके बारे में, पहले तो शादी के नाम पर क्या सीधी - साधी लड़की बनने का ड्रामा,जो इन्होंने किया वो काबिले तारीफ़ था | हिन्दुस्तानी लड़की की ही तरह शर्म और हया की मर्याद में रहने और होने के नाम की माला जो राखी पूरे शो के दौरान जप रही थी...उसी माला को (शो में वर के रूप में चुने गए इलेश परुजनवाला के साथ एक और शो जिसका नाम पति पत्नी और वो था) खुद इन्होंने ही तार तार करके रख दिया | उसके बाद कितनी सफाई से सोच -विचार, संस्कार और लाइफ स्टाइल बिलकुल अलग होने का कारण देकर इलेश को अपनी ज़िन्दगी से दूध में से मक्खी की तरह निकल कर फेंक दिया | तो राखी जी इसे हम आपका इलेश परुजनवाला के साथ किया गया धोखा समझे या "पब्लिसिटी स्टंट" | खैर..
अब तक हम इस किस्से को भूले भी नहीं थे की हमे गुफ्तगू करने के लिए एक और मौका मिल गया....
जहाँ  रसिया राहुल महाजन बिग बॉस के बाद एक बार फिर अपने साथ पंद्रह सुंदरियों के साथ  के रास लीला के अखाड़े में उतरे और जनता के सामने अपनी इस हरकत को  नाम दिया  " स्वयंवर".... का | इस  शो में राहुल का दिल जितने की जद्दो जहद में सभी सुन्दरियों ने अपनी जान लगा दी...लेकिन राहुल का दिल डिम्पी ले गयीं | आखिरकार ६ मार्च हो धूम धाम से हुई शादी आज टूटने की कगार पर है | तो राहुल अब आगे क्या करने का इरादा है....?
 
अब देखना यह है, कि....इन दोनों कि हरकत और हालत से किसी को सबक मिलता है....या सब के सब.... कुएं के मेंढक बने एक ताल पर ही नाचेंगे|

कल आज और कल

आज करीब डेढ़ साल बाद दिल्ली में वापस कदम रखा | यूँ लगा मानो ज़िन्दगी बैलगाड़ी की रफ़्तार छोड़ कर मेट्रो पर उतर गई है, मन फिर चंचल हो गया और तैयार हो गया हवा से बाते करने को | कितना कुछ बदल गया है यहाँ... लेकिन मन में एक सुकून सा है | भले ये सुकून केवल सात दिनों का है | उसके बाद फिर रायपुर वापस लौटकर बैलगाड़ी की चाल चलना है | रायपुर जाने के बाद कभी सोचा नहीं था, कि दिल्ली फिर आना नसीब होगा | सच कहूँ... तो अब रायपुर में रहने का दिल नहीं करता, कारण  एक नहीं के हैं | दिल्ली आने से पहले भी मैं खुद से इसी विषय पर तर्क वितर्क कर रही थी कि, रायपुर छोड़ने का मन  तो बना लिया है, पर आगे कहाँ जाना है ? और क्या करना है ? दिल्ली की गलियों में फिर से धक्के खाने है या मुंबई जाकर एक और मेट्रो में किस्मत को आज़माना है | मगर अब तक नतीजे पर नहीं पहुँच पाई हूँ..... | नतीजे पर कभी दिल नहीं पहुँचने देता है तो कभी दिमाग | किसी भी बारे में कुछ भी सोचने या करने से पहले कई तरह से अपने आपको टटोलना पड़ता है | ये बड़ा ही कठिन दौर होता है , लेकिन सभी मनुष्यों के जीवन में  ऐसे दोराहे  कई बार आते हैं | लड़की हूँ इसीलिये घरवालो के नज़रिए को भी देखना और समझना पड़ता है |  पर अब व्यक्तिगत रूप से कुछ कर दिखाने का समय आ गया है |  कुएं की मेंढकी  बन कर अब मैं नहीं जीना चाहती | जीवन में कुछ कर गुजरने का ज़ज्बा जो मेरे अन्दर है उसे अब मैं सबके सामने लाना चाहती हूँ | मुझे लगता है,  कि अब  वो समय आ गया है | अब तक ज़िन्दगी में कई समझौते कर चुकी हूँ | अब अपना फैसला खुद लेने का वक़्त है, जिसमें मैं किसी की नहीं सुनूंगी....पर दिल और दिमाग में  द्वंद्व युद्ध जारी है |  मुझे भी इंतज़ार है उस नतीजे का | जिसमें ईश्वर की  भी स्वीकृति हो |

जीना क्या जीवन से हार के......

वक़्त के थेपेड़े  क्या कुछ देखने और सहने पर मजबूर नहीं कर देते l कभी - कभी तो सोचने पर विवश होना पड़ता है कि ऐसा भी कुछ हो सकता है भला........? जैसे - जैसे समय का पहिया चलता है, इंसान जीवन को संघर्ष करता हुआ उसी समय में जीता है l  एक  इसी आस में... कि रात के बाद सवेरा  जरूर होता है l  मगर कोई कब तक बर्दाश  करे...?  एक दिन तो सब्र का बाँध टूट ही जाता है l तब ज़िन्दगी  एक बोझ से कुछ कम नहीं लगती, और ऐसे में हम भगवान् को कोसते है l बावजूद यह याद रखने के, कि भगवान् तो हमेशा हमारे साथ है l बस दिखाई नहीं देते l वो भी तो जानना चाहते है, कि मुसीबत की घड़ी में हम उनपर कितनी श्रद्धा बनाये रखते है ?? वक़्त अपनी गति से चल रहा है, और उसके साथ ही साथ हम अपनी l  ऐसे में सबसे ज्यादा तकलीफ तब होती है, जब बेगानों की भीड़ में हमारे अपने भी हमारा साथ छोड़ते देखाई देते है l और गैर आपका साथ निभाते है l ऐसे में मन में एक सवाल टीस मरता है, कि क्या हमारेअपने  केवल सुख के साथी है, दुःख में कोई किसी का नहीं होता........?

पर वो इंसान ही क्या जो जीवन से हार जाये..... संघर्षों का नाम ही तो ज़िन्दगी है l जब काले घने  अंधेरो के बीच कोई राह नज़र ना आये, तब सब कुछ परमात्मा पर छोड़ देना चाहिए l बावजूद इसके की जीवन को खत्म करने पर उतारू हो जाना चाहिए l जीवन तो चलते रहने का नाम है l चाहे हवाओं का रुख़ हमारी ओर हो या न हो l

ख़ैर............इन्सान की ख्वाइशों  की कोई इन्तहां नहीं होती l
                  दो गज़ ज़मीन चाहिए, दो गज़ कफ़न के बाद l